रविवारीय प्रार्थना – आत्म निरीक्षण, आत्म चिंतन, आत्म सुधार, आत्म निर्माण एवं आत्म विकास की साधना में निरंतर लीन रहना।

आज हम एक ऐसी उलझन को सुलझाने बैठे हैं, जो शायद सदियों पुरानी है, पर जिसका जवाब हमारे अपने भीतर छिपा है। एक सवाल जो अक्सर हमें घेरे रहता है: अच्छा और बुरा, सही और गलत क्या है? क्या ये कोई पक्के नियम हैं, धारणायें हैं – जो पत्थर पर लिखे गए हैं? या फिर ये सिर्फ़ हमारी सहूलियत के लिए हमने अपने आप गढ़ ली हैं 🤫

इसका जवाब उतना सीधा नहीं है। सोचिए, हर बात और हर काम का नतीजा क्या सबके लिए एक जैसा होता है? नहीं 🤫 अगर एक ही चीज़ का फल हर किसी के लिए अलग है, तो फिर आँखें बंद करके उसे ‘सही’ या ‘गलत’ कैसे मान सकते हैं, कैसे उसका पालन कर सकते हैं? ये बिल्कुल ऐसा नहीं कि एक नियम सब पर लागू हो जाए। ये बिल्कुल वैसे नही है जैसे कि कोई रेडीमेड कपड़ा जो बाज़ार से खरीद कर पहन लिया जाए। यहां हर किसी की अपनी यात्रा है, हर किसी का अपना अपना सच है, अपना झूठ है, अपना सही है अपना गलत है 🤸

तो फिर, यह पाप-पुण्य का इतना शोर क्यों? मैं आपको बताता हूँ कि क्या सही है और क्या गलत। हम कैसे जानें कि हमारे लिए क्या उचित है और क्या अनुचित। क्या आपने कभी सोचा है कि जब हम कुछ गलत करते हैं, तो क्या कोई हमें बाहर से लाठी लेकर मारने आता है? नहीं। दरअसल, हमारे भीतर ही एक आवाज़ गूँजती है। एक गहरी कसक, एक चुभन, एक कंपन पैदा होता है। और वही पॉलीग्राफ टेस्ट में पकड़ा जाता है 🤣। आप चाहे कितने भी ‘चालाक खिलाड़ी’ क्यों न हों, इस अंदरूनी आवाज़ को पूरी तरह से खामोश कर पाना असंभव है। यह आवाज़ हमें भीतर से बेचैन रखती है। हमारे अस्तित्व का एक हिस्सा हमेशा चुपचाप हमारे किए हुए के विरुद्ध खड़ा रहता है।

इसके उलट, जब हम कुछ बेहतर बढ़िया करते हैं, तो कोई ‘ऑस्कर’ दे या न दे, हमारे भीतर एक ठंडा-मीठा सुकून फैल जाता है। होंठों पर अपने आप एक हल्की सी मुस्कान आ जाती है। यह भीतर का ‘वाह!’ है, जो किसी भी बाहरी शाबाशी से कहीं बड़ा है जो अंत मे खिड़की के उस पार और उस पार भी श्रेस्ठ बनने में और श्रेस्ठ प्राप्त करने में सहायक सिद्ध होता है।

जब हमारी आत्मा किसी बात या काम को सहजता से अपना ले और उससे अंतरात्मा को सुकून मिले, तो वही  सत्कर्म है। वहीं, जब अंतरात्मा अंदर से कचोटे और कहे, “नहीं, यह गलत है,” तो समझो वही पाप कर्म है। यह सही-गलत किसी किताब, नियम, विश्वास या आस्था का सवाल नहीं है; यह तो भीतर से उठने वाली एक धीमी, विवेकपूर्ण आवाज़ है, जिसे कुछ लोग सुन लेते हैं और कुछ अनदेखा कर देते हैं। 🤭

बस इसीलिये, मेरा मानना है कि “लोग क्या कहेंगे,” “ऐसा माना जाता है,” या “यह आस्था का प्रश्न है”—इन सारे बाहरी शोरगुल से परे हटकर, अपने भीतर की उस प्राचीन और बुद्धिमान आत्मा की आवाज़ सुनना और उसे समझना ही प्रार्थना है। यही आत्मा हमारा अपना ईश्वरत्व है। परम् जो हमारे भीतर पहले से ही विद्यमान है, उसे हर क्षण ‘हाज़िर-नाज़िर’ मानकर, एक गहरे कृतज्ञता के भाव (अहोभाव) में जीते हुए, अपने जीवन के हर छोटे बड़े कर्म को करना ही प्रार्थना है।

आज मेरे आराध्य प्रभु जी से प्रार्थना है कि आपको निरंतर आत्म निरीक्षण, आत्म चिंतन, आत्म सुधार, आत्म निर्माण एवं आत्म विकास की साधना में लीन रखें जिससे हर बीतते पल के साथ, आपके और उस परम ईश्वर-तत्व का फ़ासला मिटता चला जाये, हर भ्रम मिटता चला जाए और आप अपने जीवन को अपने सपनों सा गढ़ सको और अपने घर संसार एवं परिवेश को शानदार बना सको।

आपके अत्यंत सुखद, शुभ, मंगलमय और स्वस्थ दिनों की मंगल कामना के साथ आप सभी को एक बार पुनः प्यार भरा नमस्कार 🙏

श्री रामाय नमः। ॐ हं हनुमते नमः।

Leave a comment